#त्र्यंबकेश्वर में काल सर्प पूजा
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त्र्यंबकेश्वर में काल सर्प पूजा
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त्र्यंबकेश्वर में काल सर्प दोष पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ पंडित
When all the planets are aligned between Rahu and Ketu, a person is said to have Kaal sarp dosh in his/her kundali. A person who is affected by this Dosh faces many challenges and troubles. This includes problems in all aspects of life, such as relationships, careers, finances, marriage, education, health, and more.
If you're someone with this dosh in your horoscope, then worry not, as Kaal Sarp Dosh Puja at Trimbakeshwar is your best solution. The कालसर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर is done by authorised pandits to remove all the negative effects of this dosh. Looking for the best pandit? To help you, here is all you need to know.
Best Pandit for Kaal Sarp Dosh Puja in Trimbakeshwar
Kaal Sarp Puja in Trimbakeshwar is popular for eliminating all the negative, ill, and malefic effects of this dosh. However, the puja is done only by knowledgeable and certified pandits at the Trimbakeshwar temple. But these days, there are a lot of scams being done without people knowing. Therefore, for good results, it is very important to consult or book a pandit who is authorised and reputed.
Wondering who is the best pandit for Kaal sarp dosh puja in Trimbakeshwar? Pandits, Gurujis, Priests, Purohits—anyone who is knowledgeable about the ancient texts and Hindu traditions, specialises in kaal sarp puja, is qualified, and has performed many pujas is the right choice for you.
How is Kaal Sarp Dosh Puja in Trimbakeshwar Performed by Pandit?
When Kaal Sarp Dosh Nivaran puja in Trimbakeshwar is done by an authorized pandit, the procedure involves:
Before the puja starts, every participating individual takes a bath in the sacred holy river of Godavari.
This puja is done on a single day and takes 2 to 4 hours to complete.
Then an idol of Lord Ganesha and a gold snake are put along with 1 idol of silver Rahu, silver Ketu with Matrika Pujan to worship.
Then the Navagraha is worshipped.
Once done, the Havan is done and Lord Shiva is put on the kalash to be revered.
After this ritual, Rudrabhishek is done.
The last stage is Pitru paksha, which is done by the son of the deceased.
When to Perform Kaal Sarp Dosh Puja in Trimbakeshwar?
Wondering when is the right time to perform Kaal sarp dosh puja in Trimbakeshwar? As per Hindu tradition, the best time for a pandit to perform this puja is on Nag Panchami and Shani Amavasya day. However, this puja can also be done on other days as per a native's birth chart. This includes Savan month, Maha Shivratri, Masik Shivratri and Ambubachi Mela every month.
One can also perform this puja during the Uttarayanam period- (15th Jan to 15th July) or during the Dakshinayanam period- (15th July to 15th January). There are several muhurats every year and for best results, this puja must be done twice each year. However, it is recommended to consult experts and pandits who have years of experience.
How much does Pandit Charge for Kaal Sarp Dosh Puja in Trimbakeshwar?
कालसर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर cost depends on many factors, such as the location, the time taken to complete this puja, the type of pandit who will be performing this puja, the materials required and more. Additionally, the cost of living, accommodations, and food are also involved. However, at Trimbakeshwar, the charges range from low to high to make sure the puja is affordable for all. The charges are as follows:
If performed in a group in a hall outside the temple, the charges for each individual are around Rs 1,100 to Rs 1,500.
If performed inside the temple, the charges are Rs 2,500.
If performed inside the temple’s premises along with Rahu and Ketu jaap, the charges are Rs 5,100.
What Materials are Required for Kaal Sarp Dosh Puja in Trimbakeshwar?
To perform the Kaal Sarp Dosh Puja at Trimbakeshwar, the following materials or Samagri, are required:
Ghee
Diya
Fruits and sweets
Camphor
Flowers
Incense sticks
Uncooked rice
Coconut
Sindoor
Turmeric powder
Kumkum
Sandalwood paste
Panchamrut
Naivedya
Bell
Durva
Conch shell
Rudraksha mala
Yantra
Mantra books
Sprouts
Betel leaves
Cotton wick
Milk and water
Pooja altar
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कालसर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर नासिक पंडित संपर्क
कालसर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर मृत्यु, या काल, सर्प, या सर्प का प्रतीक है। निवारण। काल सर्प योग के दौरान जन्म लेने वाले व्यक्ति का जीवन कई परीक्षणों और क्लेशों से भरा कठिन जीवन होगा। जब सभी सात ग्रह राहु और केतु के बीच में आ जाते हैं, तो काल सर्प दोष नामक एक घटना घटित होती है। यह एक अलौकिक घटना माना जाता है जो किसी व्यक्ति के पिछले अवतारों में बहुत सारे नकारात्मक कर्मों को जमा करने के परिणामस्वरूप आती है, और इसका माकी का प्रभाव होता है।
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सर्प दोष का निवारण कैसे करे ?
गायत्री मंत्र का जप करें |
नटराज की पूजा करें |
नाग पंचमी पर उपवास करें |
सांपों का शिकार न करें |
काल सर्प दोष निवारण पूजा |
यह इस दोष के प्रभावों को दूर कर सकता है। नतीजतन, यह काल सर्प दोष के लिए सबसे अच्छा समाधान है। संपर्क करे नारायण गुरूजी / O7O57OOOO14
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जय श्री कृष्णा।। मित्रों आपको राज़कुमार देशमुख का स्नेह वंदन। आज सोमवार है, पूर्व में रुद्र के अंश अवतार हनुमान जी महाराज और सुंदर काण्ड के महत्व पर चर्चा की थी आज स्वयं भगवान रुद्र याने महादेव जी के कुछ रहस्य पर चर्चा आज के कथा पुष्प में करेंगे।
🌹🌹आपने भगवान शंकर का चित्र या मूर्ति देखी होगी। शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक चन्द्र चिह्न होता है। उनके मस्तक पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं।
उनके एक हाथ में डमरू, तो दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं।
कभी आपने सोचा कि इन सब शिव प्रतीकों के पीछे का रहस्य क्या है? शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। आओ जानते हैं शिव प्रतीकों के रहस्य...
चन्द्रमा :शिव का एक नाम 'सोम' भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। उनका दिन सोमवार है। चन्द्रमा मन का कारक है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है।
चन्द्र कला का महत्व :मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चन्द्रमास पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है।
कई धर्मों का प्रतीक चिह्न :यह अर्द्धचन्द्र शैवपंथियों और चन्द्रवंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस अर्धचंद्र का ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है।
चन्द्रदेव से संबंध :भगवान शिव के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के बारे में मान्यता है कि भगवान शिव द्वारा सोम अर्थात चन्द्रमा के श्राप का निवारण करने के कारण यहां चन्द्रमा ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम 'सोमनाथ' प्रचलित हुआ।
त्रिशूल :भगवान शिव के पास हमेशा एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही ��चूक और घातक अस्त्र था। इसकी शक्ति के आगे कोई भी शक्ति ठहर नहीं सकती।
त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक भी है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन।
त्रिशूल के 3 शूल सृष्टि के क्रमशः उदय, संरक्षण और लयीभूत होने का प्रतिनिधित्व करते भी हैं। शैव मतानुसार शिव इन तीनों भूमिकाओं के अधिपति हैं। यह शैव सिद्धांत के पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधित्व करता है।
माना जाता है कि यह महाकालेश्वर के 3 कालों (वर्तमान, भूत, भविष्य) का प्रतीक भी है। इसके अलावा यह स्वपिंड, ब्रह्मांड और शक्ति का परम पद से एकत्व स्थापित होने का प्रतीक है। यह वाम भाग में स्थिर इड़ा, दक्षिण भाग में स्थित पिंगला तथा मध्य भाग में स्थित सुषुम्ना नाड़ियों का भी प्रतीक है।
शिव का सेवक वासुकि :शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नाग कुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। भगवान शिव के नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से स्पष्ट है कि नागों के ईश्वर होने के कारण शिव का नाग या सर्प से अटूट संबंध है। भारत में नागपंचमी पर नागों की पूजा की परंपरा है।
विरोधी भावों में सामंजस्य स्थापित करने वाले शिव नाग या सर्प जैसे क्रूर एवं भयानक जीव को अपने गले का हार बना लेते हैं। लिपटा हुआ नाग या सर्प जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है।
नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकि, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है, तो निश्चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे।
नाग वंशावलियों में 'शेषनाग' को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकि हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकि का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।
उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अह���, मनिभद्र, अलापत्र, कंबल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
डमरू :सभी हिन्दू देवी और देवताओं के पास एक न एक वाद्य यंत्र रहता है। उसी तरह भगवान के पास डमरू था, जो नाद का प्रतीक है। भगवान शिव को संगीत का जनक भी माना जाता है। उनके पहले कोई भी नाचना, गाना और बजाना नहीं जानता था। भगवान शिव दो तरह से नृत्य करते हैं- एक तांडव जिसमें उनके पास डमरू नहीं होता और जब वे डमरू बजाते हैं तो आनंद पैदा होता है।
अब बात करते हैं नाद की। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि, जो ब्रह्मांड में निरंतर जारी है जिसे 'ॐ' कहा जाता है। संगीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके बीच विद्यमान केंद्रीय स्वर नाद है। नाद से ही वाणी के चारों रूपों की उत्पत्ति मानी जाती है।
आहत नाद का नहीं अपितु अनाहत नाद का विषय है। बिना किसी आघात के उत्पन्न चिदानंद, अखंड, अगम एवं अलख रूप सूक्ष्म ध्वनियों का प्रस्फुटन अनाहत या अनहद नाद है। इस अनाहत नाद का दिव्य संगीत सुनने से गुप्त मानसिक शक्तियां प्रकट हो जाती हैं। नाद पर ध्यान की एकाग्रता से धीरे-धीरे समाधि लगने लगती है। डमरू इसी नाद-साधना का प्रतीक है।
शिव का वाहन वृषभ :वृषभ शिव का वाहन है। वे हमेशा शिव के साथ रहते हैं। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को 4 पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके 4 पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
एक मान्यता के अनुसार वृषभ को नंदी भी कहा जाता है, जो शिव के एक गण हैं। नंदी ने ही धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना की थी।
जटाएं :शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।
गंगा :गंगा को जटा में धारण करने के कारण ही शिव को जल चढ़ाए जाने की प्रथा शुरू हुई। जब स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारने का उपक्रम हुआ तो यह भी सवाल उठा कि गंगा के इस अपार वेग से धरती में विशालकाय छिद्र हो सकता है, तब गंगा पाताल में समा जाएगी।
��से में इस समाधान के लिए भगवान शिव ने गंगा को सर्वप्रथम अपनी जटा में विराजमान किया और फिर उसे धरती पर उतारा। गंगोत्री तीर्थ इसी घटना का गवाह है।
भभूत या भस्म :शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है।
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यज्ञ की भस्म में वैसे कई आयुर्वेदिक गुण होते हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, तब केवल भस्म (राख) ही शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती है।
तीन नेत्र :शिव को 'त्रिलोचन' कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेक��न बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास होगा।
संसार और संन्यास :शिव का यह नेत्र आधा खुला और आधा बंद है। यह इसी बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की जिम्मेदारियों को निभा सकता है।
त्र्यंबकेश्वर :त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के व्युत्पत्यर्थ के संबंध में मान्यता है कि तीन नेत्रों वाले शिवशंभू के यहां विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्र) के ईश्वर कहा जाता है।
पीनिअल ग्लैंड :आध्यात्मिक दृष्टि से कुंडलिनी जागरण में एक एक चक्र को भेदने के बाद जब षट्चक्र पूर्ण हो जाता है तो इसके बाद आत्मा का तीसरा नेत्र मलशून्य हो जाता है। वह स्वच्छ और प्रसन्न हो जाता है।
कुमारस्वामी ने शिव के तीसरे नेत्र को प्रमस्तिष्क (सेरिब्रम) की पीयूष-ग्रंथि (पीनिअल ग्लैंड) माना है। पीयूष-ग्रंथि उन सभी ग्रंथियों पर नियंत्रण रखती है जिनसे उसका संबंध होता है। कुमारस्वामी ने पीयूष-ग्रंथि को जागृत, स्पंदित एवं विकसित करने की प्रक्रियाओं का विवेचन किया है।
हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म :शिव अपनी देह पर हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म को धारण करते हैं। हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर। हस्ती अभिमान का और व्याघ्र हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है।
शिव का धनुष पिनाक :शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्��ि के बाद इस धनुष को देवराज को सौंप दिया गया था।
उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज को धनुष दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।
शिव का चक्र :चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।
त्रिपुंड तिलक :माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी है। यह त्रिपुंड सफेद चंदन का या भस्म का होता है।
त्रिपुंड दो प्रकार का होता है- पहला तीन धारियों के बीच ला��� रंग का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा होता है सिर्फ तीन धारियों वाला तिलक या त्रिपुंड। इससे मन एकाग्र होता है।
कान में कुंडल :शिव कुंडल : हिन्दुओं में एक कर्ण छेदन संस्कार है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कर्ण छिदवाने से कई प्रकार के रोगों से तो बचा जा ही सकता है साथ ही इससे मन भी एकाग्र रहता है। मान्यता अनुसार इससे वीर्य शक्ति भी बढ़ती है।
कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने एलोरा गुफा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफेंटा, आरकाट जिले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि ��नेक पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों में यह बात पाई जाती है।
भगवान बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है।
रुद्राक्ष :माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई थी। धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है।
आशा है आप को भगवान शिव के इन रहस्यों को पढ़कर आनंद की अनुभूति प्राप्त हुई होगी। हर हर महादेव
अंत में आपसे पुनः निवेदन है कि आप कोराॆना काल में मानवीय दूरी का पालन करें मास्क, सेनेटाइजर का प्रयोग करें & चीन के सामान का बहिष्कार करें और स्वदेशी सामान अपनाए ताकि आने वाले आर्थिक संकट का सामना हम कर सके।
📚 संकलन कर्ता:- राज़कुमार देशमुख 📚
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व्यक्ति के कर्म या उसके द्वारा किए गए कुछ पिछले कर्मों के परिणाम स्वरूप काल सर्पयोग दोष कुंडली में होना माना जाता है। इसके अलावा, यदि व्यक्ति ने अपने वर्तमान या पिछले जीवन में सांप को नुकसान पहुंचाया हो तो भी काल सर्प योग दोष की निर्मिति होती है। काल सर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर मंदिर में करना पवित्र माना जाता है। यह एक प्राचीन हिंदू मंदिर है जो नासिक जिले के महाराष्ट्र में स्थित है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर को सभी शक्तपीठो के रूप में से ही एक माना जाता है, और १२ ज्योतिर्लिंगों में गिना जाता है। कालसर्प दोष मुख्यतः रूप से नकारात्मक ऊर्जाओं से संबंधित है, जो मनुष्य के शारीरिक, और मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है। यह कालसर्प पूजा वैदिक शांति के अनुसार ही करनी चाहिए। अधिक जानकारी के लिए त्रिम्बकेश्वर पुरोहित संघ वेबसाइट को भेट दिजिये।
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सावन : #त्र्यंबकेश्वर_ज्योतिर्लिंग में काल सर्प दोष से मिलती है मुक्ति. पढ़िए कथा शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री त्र्यंबकेश्वर मंदिर हैं. श्री त्र्यंबकेश्वर को महादेव के ज्योतिर्लिगों में दसवां स्थान दिया गया है. यह महाराष्ट्र में नासिक शहर से 35 किलोमीटर दूर गौतमी नदी के तट पर स्थित है. त्र्यम्बकेश्वर मंदिर भगवान शिव का ऐसा ही एक ज्योतिर्लिंग है जिसकी महिमा अपार है. जो भी ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है भगवान शिव उसके सभी कष्टों का निवारण कर देते हैं. त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव स्वयं यहां पर प्रकट हुए थे. त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग नासिक के पास स्थित है. त्र्यम्बकेश्वर मंदिर गोदावर�� नदी के तट पर स्थित है. यहां पर कालसर्प दोष और पितृदोष की पूजा की जाती है. मान्यता कि जिन लोगों की जन्म कुंडली में ये दोष पाया जाता है, वह व्यक्ति त्र्यंबकेश्व में आकर पूजा करे तो यह दोष समाप्त हो जाता है. त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा पौराणिक कथा के अनुसार यहां स्थित ब्रह्मगिरी पर्वत पर देवी अहिल्या के पति ऋषि गौतम निवास करते थे. अन्य ऋषि, गौतम ऋषि से ईष्र्या रखने लगे थे. इस कारण एक बार गौतम ऋषि पर गौहत्या का आरोप लगा दिया गया. इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए अन्य ऋषियों ने उनसे गंगा को इस स्थान पर लाने के लिए कहा. गौतम ऋषि ने शिवलिंग की स्थापना कर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या करने लगे. तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर जी और माता पार्वती ने उन्हें दर्शन दिये. शिवजी ने गौतम ऋषि से वर मांगने के लिए कहा. तब गौतम ऋषि ने गंगा माता को इस स्थान पर उतारने का वर मांगा. ��ेकिन गंगा माता ने कहा कि वे तभी इस स्थान पर उतरेंगी जब भगवान शिव यहां रहेंगे. तभी से भगवान शिवजी यहां पर त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप निवास करने लगे. त्र्यंबकेश्वर मंदिर के पास से ही गंगा नदी अविरल बहने लगी. इस नदी को यहां गौतमी नदी (गोदवरी) के नाम से भी जाना जाता है. त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता त्र्यंबकेश्वर मंदिर भगवान शिव का अति प्राचीन मंदिर है. यहां पर तीन शिवलिंग हैं. जिनकी पूजा की जाती है. इन तीन शिवलिंग को ब्रह्मा, विष्णु और शिव के नाम से जाना जाता है. मंदिर के पास तीन पर्वत स्थित हैं, जिन्हें ब्रह्मगिरी, नीलगिरी और गंगा द्वार कहा जाता है. ब्रह्मगिरी पर्वत को भगवान शिव का स्वरूप माना जाता है. वहीं नीलगिरी पर्वत पर नीलाम्बिका देवी और दत्तात्रेय गुरु का मंदिर है तथा गंगा द्वार पर्वत पर देवी गोदावरी मंदिर है. https://www.instagram.com/p/CCydkKrpXdx/?igshid=13yzqco47ejup
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स्त्री में काल सर्प दोष
ज्योतिष के क्षेत्र में, स्त्री में काल सर्प दोष एक ऐसा नाम है जो व्यावहारिक रूप से हर किसी के दिल में डर पैदा करता है। व्यक्ति इस खतरनाक दोष को मिटाना चाहते हैं और अपने प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। त्र्यंबकेश्वर में की जाने वाली कालसर्प दोष निवारण पूजा काल सर्प दोष के लिए सबसे प्रभावी उपचार है। काल सर्प योग पूजा अंकित गुरूजी से बुक करे 08378000068
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काल सर्प दोष का उपाय - नारायण गुरूजी
काल सर्प दोष निवारण पूजा का खर्चा, मुहूर्त, लाभ, प्रकार, लक्षण, उपाय, सामग्री त्र्यंबकेश्वर में बुक करे। संपर्क करे नारायण गुरूजी O7O57OOOO14
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काल सर्प दोष निवारण पूजा का खर्चा, मुहूर्त, लाभ, प्रकार, लक्षण, उपाय, सामग्री
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काल सर्प दोष निवारण पूजा का खर्चा, मुहूर्त, लाभ, प्रकार, लक्षण, उपाय, सामग्री
काल सर्प दोष निवारण का अर्थ है मृत्यु और सर्प का अर्थ है सांप। काल सर्प योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति जीवन के दौरान कई कष्टों और समस्याओं का सामना करता है।
जब सभी सात ग्रह राहु और केतु के बीच में आ जाते हैं तो काल सर्प दोष हो जाता है।
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